Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधक.. उस नरक में भूख ऐसी है कि तीन लोकका समस्त नाज खाले तो भी न मिटै परंतु वहां पर एक कण भी खानेकों नहिं मिलता इस प्रकारके दुःख यह जीव सागरों तक सहता है। तत्पश्चात् किसी शुभ कर्मके निमित्तसे मनुष्य शरीर प्राप्त करता
जननी उदर वस्यो नवमास | अंग मानते पाई त्रास ॥ निकसत जे दुख पाये घोर । तिनको कहत न आवै ओर ।। बालपने में ज्ञान न लयो । तरुणसमय तरुणीरत रह्यो । अमृतक सम वृद्धापनो। कैस रूप लखै आफ्नो ॥ १५ ॥ ' मनुष्य जन्ममें यह माताके पेटमें नवमास रहा सो वहां शरीर सुकडा हुआ रहनेसे बहुत दुख पाया। तत्पश्चात् पेटसे निकलते हुये जो भयानक दुःख भोगे उनको तौ जीभसे कहने में अंत ही नहिं आता । बालकपनमें तो हिताहितका ज्ञान ही नहिं होता और जवानीमें स्त्रीमें मग्न रहा, तीसरी अवस्था बूढ़ापन है सो वह अधमरे मनुष्यकी समान वेकाम होती है। ऐसी अव. स्थामें यह जीव अपने स्वरूपको किस प्रकार पहचान ? : १५० की अकाम निर्जरा करै । भवनत्रिको सुरतन धरै ।। विषय चाह दावानल दह्यो। मरत विलाप करत दुख ह्यो। जो विमानवासी हू थाय । सम्यग्दर्शन विन दुख पाय || तहत चय यावर तन थरै । यों परिवर्तन परे करे ॥ १७ ॥
कभी यह जीव अकाम निर्जरा करता है तो भवनवासी १ समतासे कोका फल भोगनेसे जो कर्म झड जाना, वह अकाम निर्जरा है।