Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग । तां भूमि परसत दुख इस्यो । बीछू सहम डसें तन तिसौ ॥ तहां राध शोणित वाहिनी । कृमिकुलकलित देहदाहिनी ||
उस नरक में पृथिवी ऐसी है कि उसके छूनेसे ऐसा दुख होता है जैसा कि हजार विच्छूके काटनेसे होता है। उस नरकमें राध (पीव ) और लोहूकी नदी अनेक प्रकारके कोड़ोंले भरी हुई देहको जलानेवाली बहती है ॥ १० ॥ तथा
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सेमरतरु जुतदल असि पत्र । असि ज्यों देह विदारै तत्र ॥ मेहसमान लोह गलि जाय। ऐसी शीत उष्णता थाय ॥
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उस नरक में तलवार की धारके समान तोखे पत्तेवाले सेमरके वृक्ष हैं उनके नीचे जाते ही वे पत्ते गिरकर तरवारकी माफिक शरीरको काट देते हैं वहां शीत और गर्मी भी ऐसी है कि जिसमें सुमेरुकी वरावर लोहेका पिंड डाला जाय तौ तत्काल
गल जाय ॥ ११ ॥
तिल तिल करहिं देहके खंड । असुर भिडावें दुष्ट प्रचंड ॥ सिंधु नीरतें प्यास न जाय । तो पण एक न बूंद लहाय ॥
पसे नरकमें नारकी जीव एक दूसरेकी देहके तिल तिल भर टुकड़े कर देते हैं । तथा दुष्ट असुर कुमार देव भी उनके पूर्व जन्मके वैर याद कराकर लड़ाते हैं । नरकमें प्यास इतनी है कि समुद्रका जल पीने पर भी नहि मिडै परंतु कभी एक बूंद पानी भी नहि मिलता ॥ १२ ॥
तीन लोकको नाज जु खाय । मिटै न भूख कणान लहाय ।। ये दुख बहु सागरलों सहै । कर्मयोग नरतन" लहै ॥