Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
चतुर्थ भाग! : . के कमलाकार मनरूप परिणेमावनेके तथा उसके द्वारा यथावत् विचार करनेके लिये कारणभूत जीवकी पूर्णताको मनम्पर्याप्ति
७३ । पकेंद्रिय जीवके भाषा और मनके विना चार पर्याप्ति होती है। दींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिट्रिय और असैनी पंचेंद्रियके मनके विना पांव पर्याप्ति होती है और सैनी पचेंद्रियके छहो पर्याप्ति होती है। इन सब पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेका काल अंत. मुहर्त है और एक एक पर्याप्तिका काल भी अन्तर्मुहूर्त है और सवका मिलकर भी अंतर्मुहूर्त काल है। परंतु पहिलेसे दुसरेका दुसरेसे तीसरेका इसी प्रकार छठे तकका काल क्रमसे बड़ा बड़ा अंतर्मुहर्त है। अपने २ योग्य पर्याप्तियोंका प्रारंभ तो एकदम होता है किंतु पूर्णता क्रमसे होती है। जबतक किसी जीवकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो परंतु नियमसे पूर्ण होनेवाली हो तबतक उस जीवको निवृत्त्यपर्याप्तक कहते हैं और जिसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो गई हो उसे पर्याप्तक कहते हैं। जिसकी एक भी पर्याति पूर्ण न हो तथा श्वासके अठारहवें भागमें ही भरण होनेवाला हो, उसको लन्यपर्याप्तक कहते हैं। . . ____७४: जिस कर्मके उदयसे लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था हो उसको अपर्याप्तिक नाम कर्म कहते हैं। . . .. .
.७५ जिस कर्मके उदयसे एक शरीरका. एक ही स्वामी हो. उसे प्रत्येक नाम कर्म कहते है। , ७६ जिस कर्मके उदवसे.एक शरीर के अनेक जीव स्वामी