Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधकसो हिय शून्य कवित्त कर, समता विन सो तपसों तनदाहै। सो थिरता विन ध्यान धरै शठ, जो सतसंग तजै हित चाहै।
अर्थ-जो मनुष्य सतसंगतिको छोड़कर हित चाहता है सो मानो, दयाके विना धर्म चाहता है, अथवा अंधा होकर देखने को तैयार होता है, अथवा यश पानेकी इच्छासे दुर्नीति (अन्या. याचरण ) करता है अथवा विना बुद्धि के आगमका अवगाहन करना चाहता है, अथवा हृदयशून्य होकर कविता करना चाहता है अथवा समताके विना तपस्या करके शरीरको जलाता है, तथा थिरताके विना ध्यान लगाता है।
घनाक्षरी। कुमति निकंद होय महामोह मंद होय,
जगमगे सुयश विवेक जगै हियसों। नीतिको दृढाव होय, विनैको बढ़ाव होय,
उपजै उछाह ज्यों प्रधान पद लियेसों ॥ धर्मको प्रकाश होय दुर्गतिको नाश होय,
वरतै समाधि ज्यों पियूप रस पियेसों। तोष परि पूर होय, दोप दृष्टि दूर होय एते गुण होहिं सतसंगतके कियेसों।
___कुंडलियां। 'कौंरी ते मारग गहैं, जे गुनिजन सेवंत ।
१। कौंरा-कुंवरपाल नामके बनारसीदासजीके एक मित्र ये यह कुंडलियां उन्हीका बनाया हुआ मालूम होता है।
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