Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग ।
ज्ञानकला तिनके जंगे, ते पात्रहिं भव अंत ॥ ते पावहिं भव अंत, शांतरस ते चित धारहिं । ते पद हरहिं, धर्मकीरति विस्तारहिं ॥ होय सहज जे पुरुष, गुनी वारिजके भौंरा । तै 'सुर संपति लहैं, गर्दै ते मारग कौंरा ॥ ३ ॥
छप्पय ।
जो महिमा गुन हनहि, तुहिन जिम वारिज वारहिं । जो प्रताप संहरहि, पवन जिम मेघ विडारहिं . जो समदम दलमल हि, दुरिद जिय उपवन खंडहि । जो सुछेम छय करहि, वज्र जिम शिखर विहंडहि ॥ जो कुमति अनि ईंधन सरिस, कुनयलता हृदमूल जग । सो दुष्टसंग दुखपुट करि, तजहि विचक्षणता सुमग ॥ ४ ॥
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२१. भरत चक्रवती.
महाराज भरतका जन्म चैत्र कृष्णा नवमीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें हुआ था । भरतका सर्वत्र राज्य होनेसे ही इस श्रार्य खंडका दूसरा नाम भारतवर्ष पड़ा है। भरतका शरीर बहुत हो सुन्दर और वह ५०० धनुष ऊंचा था. इनमें सब गुण भगवान ऋषभदेव ही के समान थे। छहों खंडके मनुष्य पशु और देवादिकों में जितना घल था उससे कई गुणा अधिक वल चक्रवर्ती