Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
चतुर्थ भाग ।
१ पुत्र जन्मका उत्सव मनाया इन तीनों हो उत्सवोंमें भरतने किमिच्छा दान दिया । सड़कों और गलियों में यत्र तत्र रत्नादि : पदार्थ रखकर सबको वाँटे 1
ܕ
; जब श्रायुत्रशालामै चक्ररत्न उत्पन्न हो गया तब भरत महाराजने दिग्विजय के लिये शरद ऋतु चढ़ाई की। सबसे आगे पैदल सेना, उसके पीछे घुड़ सवार,
उसके पीछे रथ और
¿
रथोंके पीछे हाथी चले ।
.
अजोध्या से चलकर महाराज भरतको सेनाने गंगा नदीके किनारे पार सबसे पहिले डेरा किया सेनाके लिये तंबू लगाये गये घोड़ों के लिये भी कपडे ही की घुड़शालायें बनाई गई । वहां से फिर गंगाके किनारे २ ही चलकर समुद्रपर्यंत समस्त देशोंक राजाको आज्ञाकारी बनाया। लड़ाई तौ बहुत ही कम करनी पडती थी क्योंकि भरत के पुण्यके प्रतापसे और असंख्य सेना सहित भारी चढ़ाई देखकर प्रायः सवही राजा लोग भेट ले ले कर चक्रवतके पास श्राते और उनकी आज्ञा शिरोधारण कर धनुयायी बनते जाते थे। जो राजा श्रधिक कर लेता वा प्रजाको पीड़ाकारी होता उसे केंद्र करके दूसरा राजा स्थापन कर देता था। तत्पश्चात् समुद्र के निवासी मगधदेवको प्राज्ञाकारी बनाकर रत्नोंके हार व दो कुंडल भेटमें लेकर श्रागेको चलें । उसीप्रकार दक्षिण समुद्र तक और तत्पश्चात् पश्चिम समुद्र तक पश्चिम Fors खंडको जीतकर सिंधुनदी के किनारे किनारे चलते हुये विजयार्द्ध पर्वतके निकट पहुंचे और विजयार्द्ध पर्वतके स्वामी व्यंरनदेवको भेट लेकर श्राहाकारी वना लिया तव भरतकी साधी