Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधकका द्वार बंद करनेके लिये मजबूत अर्गल समान है ऐसी तीन लोकके प्राणियोंकी हित करनेवाली दयाको ही चित्तमें धारण करो इस दयाधर्मके सिवाय दुसरोंकी किसी भी करतूतको हिसावमें ही मत लावो ॥१॥
अमानक छंद । जो पश्चिम रवि उगै, तिरे पापाणं जल । श्रो उलटै भुवि लोक, होय शीतल अनल ॥ जो मेरू डिग मगै, सिद्धि कहँ होय मल । तवहू हिंसा करत न उपजत पुण्य फल ॥ २॥
अर्थ-सूर्य कदाचित् पश्चिममें उदय हो जाय, जलपर पत्थर तिर सकता है, पृथिवी भी उलट सकती है, अग्नि शीनल स्वभाव वाली होना सहज है, सुमेरु पर्वत चलायमान हो सकता है, सिद्धि कदाच निष्फल हो सकती है। परन्तु जीवोंकी हिंसा करनेसे ( यज्ञादिकसे ) पुण्यकी प्राप्ति कदापि नहिं हो सकती ॥३॥
घनाक्षरी छंद । अगनिमें जैसे अरविंद न विलोकियत. ... सूर अथवत जैसे वासर न मानिये ।
सांपके वदन जैसे अमृत न उपजत, ... कालकूट खाये जैसे जीवन न जानिये । .. कलह करत नहिं पाइये सुजस जैसे . . . . . . . वाढत रसांस रोग नाश न वखानिये।.