Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
३४
जैनपालवोधकवचन बोलना ५, अतुल्य बल ६, धके समान सफेद रुधिर ७, शरीरमें एक हजार आठ लक्षण ८,समचतुरस्र संस्थान ९, और वज्र वृषभनाराच संहनन ये दश अतिशय अरहन्त भग. बानके जन्मसे ही होते हैं।
केवलज्ञानके दश अतिशय । जोजन शत इकमें सुमिख, गगनगमन मुख चार । नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाही कवलाहार ॥४॥ सब विद्या ईसरपनों, नाहि वढे नखकेश । अनमिष दृग छायारहित, दश केवल के वेश ॥ ५॥
एकसौ योजनमें सुमितता अर्थात् जिस स्थानमें केवली रहैं या जांय उनके चारों तरफ सौ योजनमें सुमित होगा अकाल नहिं होगा १ आकाशमें गमन होना २ भगवानके चारों ओरमुख दीखना३ अदयाका सौ योजनमें (हिंसाका) अभाव ४ किसीको उपसर्ग होनेका अभाव होना ५ भगपानके कवल (ग्रास लेकर ) आहारका न होना ६ समस्त विद्याओंका ईश्वरपना७ नख केशों का न बढना नेत्रोंकी पलकें न लगना है और शरीरकी छायान पडना १० ये दश अतिशय केवलज्ञान होनेके पीछे होते हैं ।
देवकृत चौदह अतिशय । देव रचित हैं चार दश, अर्द्ध मागधी भाष। . . आपस मांही मित्रता, निर्मल दिक्ष आकाश॥६॥