Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालयोधकस जातो येन जातेन याति वंशः समुन्ना। परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ १॥
अथांद दुनियाँमें वही मनुष्य पैदा हुभा है कि जिसके पैदा होनेसे यानी जिसके उपायोंसे उसके वंश और जाति की भले प्रकार उन्नति हुई देसे तो इस भ्रमणरूप (चक्रमप) संसारमें कौन नहिं जन्म लेता और कौन नहीं मरता ?
एक वाक्य और भी सुनोदाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं यशः। विद्यायामर्थलामे च मातुरुचार एव मः ॥२॥
अर्थात् जिस मनुष्यका जगतमें चार प्रकारके दानमें द्वादश प्रकारके तपः आचरण करनेमें, शूरवीरता, विद्या और धन कमानेमें यश नहि फैला वह मनुष्य अपनी माताका मूत्र वा विष्ठा ही है। अपनी माताका सुपूत वेटा तो वही हो सकता है जब कि उपर्युक्त गुणोंमें अपना यश फैलावै । ____वस ! इन दो वाक्योंको मानकर अपने देशके लिये अपनी जाति और धर्मके लिये जो कुछ कर सको यथाशक्ति तन मन धनसे कटिवद्ध होकर तुम्हें काना चाहिये।
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