Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 259
________________ २५१ तृतीय भाग । ५ श्रीमत वादिराज मुनिवरसों, कह्यो कुष्ठि भूपति जिंहबार । श्रावक सेट को तिस अवसर, मेरे गुरु कंचन तनधार ॥ तब ही एकीभाव रच्यो गुरु, तन सुवरण दुति भयो अपार । सो गुरुदेव बसी उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ५ ॥ ६ श्रीमन मानतुंग मुनिवरपर, भूप कोप जब कियो गवार । चंद कियो तालेमें तत्री, भक्तामर गुरु रच्यौ उदार || चक्रेश्वरी प्रगट तब होके, बंदन काट कियो जयकार | सो गुरुदेव वसो टर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ६ ॥ ७ श्रीमत कुमुद चंद्रमुनिवरसों, वाद परचो जहँ सभामकार । तव ही श्रीकल्यान धाम श्रुति, श्रीगुरुरचना रची अगर ॥ तत्र प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथकी, प्रगट भई त्रिभुवन जयकार | सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ७ ॥ • श्रीमत श्रभयचंद्र गुरुसों जब, दिल्लीपति इम कड़ी पुकारि ॥ के तुम मोहि दिखावहु अतिशय, के पकरो मेरो मत सार ॥ तब गुरु प्रगटि अलौकिक अतिशय, तुरत हरयो ताको मदभार सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ८ ॥ दोहा | . विघ्नहरन मंगल करन, वांछित फलदातार । · वृन्दावन अष्टक रच्यो, करा कंठ सुखकार ।। १ ॥

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