Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 258
________________ २५० जैनवालवोधक ७२. गुरु अष्टक । संघसहित श्री कुंदकुद गुरु, बंदन हेत गये गिरनार । वाद पस्यो तह संशयमतसों, साक्षी वदी अंविकाकार ॥ 'मत्यपंथ निरग्रन्थ दिगम्बर' कही सुरो तहँ प्रगट पुकार। सो गुरुदेव वतो उर मेरे, विघ्नहरण मंगल करतार ॥ १ ॥ स्वामी समंतभद्र मुनिवरसों, शिवकोटी हठ कियो अपार । . चंदन करो शंभु पिंडीको, तव गुरु रच्यो स्वयंभूभार ।। बंदन करत पिंडिका फाठी, प्रगट भये जिनचंद्र उदार। सो गुरुदेव वसा उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ।। २ ॥ श्रीअकलंक देव मुनिवरसों, बाद रच्यो जहँ बौद्ध विचार ॥ तारा देवी घटमें थापी, पटके मोट करत उच्चार ॥ जीत्यो स्यादवाद बल मुनिवर, बौद्ध बोधि तारामद टार । सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥३॥ श्रीमत् विद्यानंदि जौ, श्रीदेवांगम थुति सुनी सुधार । अर्थहेत पहुंच्यो निनमंदिर मिल्यो अर्थ तहँ सुखदातार तब व्रत परम दिगंवरको घर, परमतको कीनी परिहार। -सो गुरुदेव वसौ उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार॥ ४ ॥

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