Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तृतीय भाग ।
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जन्म जरा रोग मरण होकर केवलमात्र ल्याय वा अक्षय परमपावन सुखरूपी अमृतका श्रोत बढ़ता है ॥ ९६ ॥ तथासल्लेखना मनुज जो धारें, पाते हैं वे निरवधिमुक्ति । विद्या दर्शन शक्तिस्वस्थता, हर्ष शुद्धि औ अतिवृप्ति ॥ तीन लोकको चकट पलट दे, चाहें ऐसा हो उत्पात । aft hera भी होता, मोक्षप्राप्त जीवोंका पात ॥ ९७ ॥
जो मनुष्य सल्लेखना धारण करते हैं वे परंपरा मोक्ष को जाते हैं उस मोक्षमें अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतवीर्य अनंतसुख हर्ष पवित्रता और अतिशय यात्मिक सुखकी तृप्ति होती है चाहे तीन लोकको उलट पलट करनेवाला भी उत्पात हो तौ मी मोक्षमात जीवोंका सैकडों करन काल बीत जाने पर भी किसी प्रकार भी पतन नहीं होता || ९७ ॥ कीट कालिमाहीन कनकसी, प्रतिकमनीय दीप्तिवाले । तीन लोक शिरोमणि सां है, निःश्रेयस पानेवाले ॥ धन पूजा ऐश्वर्य हुकूमत, सेना परिजन भोग सकल । होय घलौकिक अतुल अभ्युदय, सत्य धर्मकर ऐसा फल |
मोक्ष पानेवाले जीव मुक्तिसे पहिले कालिपारहित सुबकी कांति समान दीप्यमान होते हुए तीनलोकमें शिरा मणिभूत शोभाको धारण करते हैं क्योंकि समीचीन धर्म प्रतिष्ठा, धन, आज्ञा, ऐश्वर्य, सेना, सेवक, परिजन और कामयोगोंकी बहुलतासे अलौकिक अतुल अभ्युदयको प्रदान करता है ।। ९८ ।।
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