Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 237
________________ तृतीय भाग। २२६ वेचकर जो पैसाभायेंगे उनसे खूब धन उपार्जन करूंगा । जब सेठ पदवी.प्राप्त कर लूंगा तवराजा महराजा होनेका प्रयत्न करूंगा उसे पालेने पर जब चक्रवर्ती हो जाऊंगा तब अपने सतखने मकान पर सोया करूंगा और जब मेरी स्त्री मेरे. पैर दावेगी तब मैं प्रेमसे पैर फटकार कर (मारकर) कहूंगा कि तुम्हे पैर दावना ठीक नहीं आता ! ऐसा विचार करते हुए उसने एक पैर उस समय फटकार ही दिया जिससे. पैरोंके पास रक्खा हुआ घी फैल गया और उस जलती हुई अग्नि पर पटा जिससे अग्नि खच प्रज्वलित हो गई और उस झोपडीके द्वारमें ही लग गई जिससे श्मश्रुनवनीतका. निकलना असध्य हो गया। बेचारा उस आगसे जलकर परगया और मरकर दुर्गतिको गया । इस लिये मनुष्योंको चाहिये कि थोडेमें ही सन्तोष रख अपने जीवनको सफल करें: मथुनवनीतकी तरह परिग्रहमें पढ कर अपनी जिन्दगी वरवाद न करें। ६५. सेठकी पुत्री वृषभसेनाकी कथा। कावेरी नगरमें राजा उग्रसेन थे वहीं पर धनपति सेठ रहता था जिसकी सेठानीका नाम धनश्री और पुत्रीका वृषमसेना था। उस वृषभसेनाकी दासी रूपवतीने एक समय

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