Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालबोधक
वडका बीन भूमिमें जाकर, हो जाता है तरु भारी । वेर घुमेर सघनघन सुंदर, समय पाय छायाकारी ॥ वैसे ही हो अल्प भले हो, पात्रदान सुख करता है । समय पाय बहुफल देता है, इष्ट लाभ बहु भरता है ॥ ॥
. जिसप्रकार बढका छोटासा बीज भूमिमें प्राप्त होकर समय पर बढ़ा भारी सघन छाया देनेवाला वृक्ष हो जाता है उसी प्रकार मुनि अर्जिकादि पात्रोंमें दिया हुवा थोडासा भी दान समय पर मन बांछित बहुतसा फल देनेवाला होता है' दानके भेद व उनके प्रसिद्ध फल ।
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भोजन भेषज ज्ञानउपकरन, देना और अभय द्यावास | चार ज्ञानके धारी कहते, दान यही चारों हैं खास ॥ इनके पालन करनेवाले, श्रीश्रेण रु वृषभ सेना । कोतवाल कौंडीश व शूकर, हुए प्रसिद्ध समझ लेना ॥ ८९ ॥ चार ज्ञानके धारक गणधरोंने, श्राहारदान, औषध दान, ज्ञानके साधन शास्त्रादि उपकरण और भयरहित स्थानदान ये चार प्रकारके ही दान कहे हैं। इन चारों दानोंपेंसे ग्राहारदानमें श्रीषेण राजा, औषधदानमें सेठकी पुत्री वृषभसेना, शास्त्रदान में कौंडेशनामका कोतवाल, और मुनिको वस्तिका दानमें शूकर प्रसिद्ध हो गया है ॥ ८ ॥
वैयावृतके भेदमें ही भगवत्पूजा करना ।
प्रभुपद कामदहनकारी है, बांछितफल देनेवाले । उनका प्रतिदिन पूजन करिये, वे सब दुख हरनेवाले ॥,