Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 233
________________ तृतीय भाग । २२५ शिष्य - गुरुजी ! कन्यादाता नहीं, किंतु कन्या विक्रेता कहना चाहिये जिसका नाम सुपचंदनी है । गुरु -- क्या कहा ! क्या उसने कन्या बेची है ? कन्या पर रुपये लेकर व्याह किया है ? शिष्य - हां गुरुजी ! विचाग गरीब आदमी है । धंधा रोजगार है नहीं, तीन चार बेटियां हैं । एक एकके विवादमें कमसे कम एक २ हजार रुपये चाहिये सो हजार पेद्रहसौ ले लिये तो क्या हर्ज है ? गुरु-क्या कहा ! रूपचंद गरीब आदमी है ? सुनता हूँ वह तौ व्याज वा गहना गिरवी रखनेका काम करता है और खूब ब्याज लेता है । खैर ! वह गरीब ही मही तौ क्या कन्या I को बेचकर उसने रुपये लिये हैं १ हजार रुपये व्याहमें खर्च करनेकी क्या जरूरत है ? दुलहा दुलहाका भाई, भतीजा, बामन, चौथा नाई बुलाकर बेटी का पीला हाथ कर देता, तौ क्या नाक कट जाती १ शिष्य – नाक तौ जरूर कट जाती क्योंकि उसने बडी बेटीका विवाह भी जमाईसे चुपके २ तीन हजार लेकर किया या जिसमें विरादरीको एक हजार रुपये लगाकर खूब लडडू जिमाये थे जिससे वडा भारी नाम हुआ था । यदि उसी प्रकार विशदरीको लड्डू न जिमाता व पहिले व्याहकी सच शोभा नष्ट हो जाती ! गुरु - धिक्कार है ऐसे नामको और सैकडों धिक्कार हैं १५

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