Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 222
________________ जैनालबोधकजयकुमारके पास गया और बोला-जयकुमार ! सुलोचना के स्वयंवरमें जिसने आपके साथ वही लडाईकी यी, उस नाभि विद्याधरकी में स्मवती और संपूर्ण विद्याओंकी स्वामिनी स्त्री हूं परंतु मैं आपके रूपकी प्रशंसा सुनकर नामि राजासे विरक्त होकर आपके पास आई हूं और मब तरह माप पर मोहित हूं । कृपया मुझे दासो बनाइए और मेरे तमाम राज्यको ब्रहण कर भोग कीजिए । जयकुमारन जब उसकी ऐसी बातें सुनी तो उत्तरमें निवेदन किया कि-हे सुंदरी ! आपको ऐसे वचन नहीं शोमते हैं। कारण कि भार स्त्री रत्न हो और मेरे सर्वया परती माता के समान है। इसलिए मुझे ऐसे तुम्हारे राज्यसे कोई काम नहीं है। इसके सिवाय रतिप्रमदेवने और भी कई उपसर्गों द्वारा जयकुमार को डिगाना चाहा परंतु उसका मनमरु जरा भी चलायमान न हुआ तब रविप्रभदेवने अपने वास्तविक रूपको धारण करके सब हाल जयकुमारसे कह सुनाया और कहा-मैं प्राप के परिग्रहपरिमाण व्रतकी परीक्षाके लिए ही भाया था। परन्तु भापका मन जरा भी विचलित न देखकर मुझे बडा प्रानन्द हुआ और भाप सर्वया पुज्य व माननीय हैं। प्राप की जो इंद्र प्रशंसा करते हैं उसके आप सर्वया योग्य हैं। ऐम कहकर बहुतसे प्राभूषणों द्वाग पूजा करके अपने स्थानको चला गया। इसलिए मत्रको जयकुमारकी तरह परिग्रहपरिमाणं व्रत धारण करके एन्य बनना चाहिए।

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