Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तृतीय भाग। (तुल्लकजी ) स्वयं तीर्थकर बनकर धर्मोपदेश देने लगे। अबकी वार मनुष्यों का झुंड दूना दिखाई देरहा था और तुल्लकजी व इतर जनोंको विश्वास था कि रेवती जरूर आ. वेगी पर बह जैनशास्त्रकी ज्ञाता यह जानकर कि तीर्थंकर चौबीस ही होते हैं ना कि हो चुके हैं पच्चीसवां होना असम्भव है अतः लोगोंने बहुत समझाश पर वह न गई । जब तुलशनी इन परीक्षाओंसे निष्फल हो चुके तब एक दिन रोगसे क्षीण मुनिशरीर बनाकर भिक्षाके समय रेवतीके मकानके पास पहुंचे और वहां मायासे गिर पडे रेवतीने जत्र यह देखा तो शीघ्र दौडी और भक्तिसे उठाकर घरपर ले आई और आदरसे भोजन कराया परन्तु मायावी मुनि सत्र भोजन करगये और वहीं वमन कर दिया जिससे बडी दु. गंध निकल रही थी परन्तु रेवतीने अपना ही कसूर ठहराया
और चितवन करने लगी कि न जाने मैंने कैसा अपथ्य भोजन करा दिया है। यह सुनकर तुलकजीने अपनी माया समेटली ओर अपना खास रूप बनाकर रेवतीसे गुप्ताचार्य की तरफसे आशीर्वाद कहा और पूर्व वृत्तांतको कहकर उसके अमृदृष्टि अंगकी वही प्रशंसा की और फिर अपने स्थानको चले गये, इधर वरुणराजा नयकीर्ति पुत्रको राज्य देकर तप.. चरण कर चौथे स्वर्ग देव हुए और रेवती भी तप कर पाचवें स्वर्गमें देव हुई।
पूर्वोक्त कयाका सारांश यही है कि खोटे खरे तत्त्वों की