Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तृतीय भाग ।
१३६.
सम्बन्धमें था । वह यह था कि हे स्वामिन् आपने इस पृथ्वी रूपी स्त्रीको तीस वर्षतक भोगके छोड दिया है इसलिए वह आपके वियोगसे दुखी होकर नदीरूप प्रांसुओंसे आपकी याद कर रोरही है । पुष्पडाल, पूर्वोक्त श्लोकका अर्थ अपनी स्त्री (काणी ) और अपने सम्बन्धमें समझकर अत्यन्त विद्दल हो गया और यह विचार करता हुआ कि मेरी स्त्री मेरे वियोग से अत्यंत दुखी होगी इसलिए कुछदिन घरमें रहकर उसे फिर संसार सुखका मजा चखाऊंगा और फिर निश्चित होकर दीक्षा लूंगा उठकर घरको चल पडा परंतु यह सब अपने दिव्य ज्ञानसे वारिषेण मुनि समझ ही गये थे इसलिये उनने न जाने दिया और उसी धर्ममें स्थित करने के लिए अपने नगर ( राजगृह ) को चल दिये । चेलिनीने जब वारिषेणको देखा तो विचारने लगी कि क्या वारिषेण अपने चरित्र च्युत होगया है जिससे घरकी तरफ आरहा है परंतु परीक्षा करनेके लिये उसने दो आसन बिछा दिए वारिषेण सेो वीतराग आसन ( काटकी चौकी ) पर बैठ गये किंतु सोनेके यानी सराग ब्रासन पर पुप्पडाल बैठगया उसी समय वारिषेणने अपनी सव स्त्रियां और यन्तःपुरु आदि दिखा पुष्पडालसे कहा कि तुम इन सबको ग्रहण करो और मनमाना भोग भोगो कारण कि उस कानी स्त्री की बजाय ये ३२ स्त्रियां हैं और यह तमाम राज्य है । यह सुनकर पुष्पडाल बहुत लज्जित हुआ और विचारने लगा कि.
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