Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनगालबोधक
दुर्मिल सवैया । मदिरा निषेध । कृमिरास कुवास सराय दरै, सुचिता सब छीवत जात सही। जिह पान किये सुधि जात हिये, जननी जनजानत नार यही मदिरासप और निषिद्ध कहा, यह जान भले कुल में न गही । धिक है उनको वह जीभ जलो, जिन मूढनके मत लीन कही।
वेश्या निषेध । धनकारण पापनि प्रीति क', नहिं तोरत नेह जया तिनको । लव चाखत नीचनके मुहकी, शुचिता सब जाय छिये जिनको। मदपांस वजारनि खाय सदा, अँधले विसनी न करै घिनको । गनिकासंग जे शठ लीन भये, धिक है धिक है धिक है तिनको ।।
शिकार निषेध ( कवित मनहर) काननमें वसै ऐसो पानन गरीय जीव,
प्राननसे प्यारो मान पूंजी जिस यह है । कायर सुभाव धरै काइसौं न द्रोह करै,
सवहींसौं डरै दांत लिये इन रहै है । काइसौं न रोस पुनि कापै न पोष चहै, ___ काहूके परोष परदोष नहिं कहै है। नेक स्वाद सारिवेको ऐसे मृग मारिवेको, '' हा हा रे कठोर तेरो कैसे करें बहै है ॥८॥ -
३ सदाकर। ४ यदि धन नहीं होता है प्रीतिको तिनकेकी तरह तोड डालती है । ५लार--लाला। ६ वनमें जंगलमें । ७ परोक्ष पीठ पी। ८ कैसे हाथ चलाता वा उठाता है।