Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तृतीय भाग ।
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चमकदार थी कि वह रात्रिमें न छिप सकी, मार्गमें बढ़ा प्रकाश होने लगा, भाग्यसे कोतवालकी निगाह इस पर पड़
| उसने यह समझकर कि चोर किसीका रत्न चुराकर भागा जारहा है शीघ्र ही उसका पीछा किया । यद्यपि चोर चहुत भागा पर कोतवालने पीछा न छोडा अंतमें चोर अंस-" मर्य होकर उसी उद्यानमें पहुंचा जहां सेठजी ठहरे हुए थे । वहां पहुंचकर बडे जोरसे चिल्लाया कि मेरी रक्षा करो। सेठजीने कोतवालकी डाटको सुनकर और उसे चोर सपझकर मनमें विचार किया कि यदि मैं इसे चोर बतलाता तो मेरे धर्मकी निंदा होगी या मेरे सम्यग्दर्शनमें दोष लगेगा | अतएव उसने कोतवालसे कह दिया कि यह चोर नहीं है यह वडा तपस्वी और सच्चा है मैंने ही इसे मणि -लाने को कहा था आपने बुरा किया कि इन्हें चोर समझ कर पीछा किया कोतवाल श्रेष्ठीके ऐसे वचन सुनकर चला गया | इधर सेठने एकांतमें खूब ही उस तुलुकको डाटा और उसी समय निकाल दिया । आप स्त्रयं वैराग्यको प्राप्त होकर दीक्षा धारण करली और तपश्चरण के प्रभावसे स्वर्ग में देव हुये ।
इसी तरह हरएको चाहिये कि अज्ञान व असमर्थ पुरुपद्वारा धर्मकी निंदा होती हो तो उसे प्रगट न करें । ढकने का प्रयत्न करें और उसे एकातमें समझावे या दंड देनेके योग्य हो तो दंड देवे जैसा कि जिनद्रभक्त सेटने किया ।