Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधकदुख पावत मान गवांवत हैं, बरजे न हैं हठसौं जरते ॥ इह भांति विचच्छन अच्छेनके बल, होय अनीति नहीं करते। परती लखि जे धरती निरखें,धनि हैं धनि हैं धनि हैं नर ते॥ दिढ शील शिरोमनि कारजमैं, जगमें जस पारंज तेइ लहैं। तिनके जुग लोचन वारिज हैं, इह भांति अचारज आप ॥ पर कामिनिको मुख चंद चिते, मुद जांहि सदा यह टेवगहैं। धनि जीवन है तिन-जीवनि को, धनि मार्य उन्ई उर माहि वह
कुशील निंदा ।
मत्त गयंद सवैया जे परनारि निहारि निलज्ज, हँसै विगसैं वुधहीन बडे रे। झूठनकी जिमि पार्तर पेखि, खुसी उर कूकर होत घनेरे ।। है जिनकी यह टेवं वहै, तिनको इसभौ अपकीरति है रे। है परलोकविष दृढ दंड, करै शत खंड सुखाचलकेरे ।।
एक एक विसनको सेवनकर फल पानेवाले । . प्रथप पांडवाँ भूप, खेलि जूमा सब खोयो।
१० इन्द्रियोंके वश । ११ परस्त्रीको । १२ आर्य-श्रेष्ठ पुरुष । १३ कमल । -२४.जीनितव्य-जीना । १५ जीवोंका । १६ माता । १७ पेटमें नोमहीना.. धारणां करती है। ... .. १..विकसित होते हैं खिल उठे। २ पत्तल । आदतवान् । ४ बंह आदत इस भवमें उनकी बदनामी करती है । ५ और परलोकमें । ६ वडा भारी दंड दिलाकर सुखरूपी पर्वतके सैकडोंटकडें:करदेती है।