Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालबांधक
२, और काय गुप्ति ( शरीरको वशमें रखना) ये तीन गुप्ति | इन सबको मिलानेसे आचार्य परमेष्ठी के ३६ गुण हो जाते हैं ॥ २१ ॥
उपाध्याय परमेष्ठीके २५ मूल गुण ।
उपाध्याय उन्हें कहते हैं जो ग्यारह अंग चौदह पूर्वके पाठी हों । ये स्वयं पढते वा अन्य मुनियोंको पढाते हैं। इनके ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका पढना ही २५ मूलगुण हैं |
ग्यारह अंगों के नाम |
प्रथमहि श्राचारांग गनि, दूजो सूत्रकृतांग | ठाण अंग तीजो सुभग, चौथो समवायांग ॥ २१ ॥ व्याख्या पराणति पांचमो, ज्ञातु कथा घट आन । नि उपासकाध्ययन है, अंतःकृत दश ठान ॥ २२ ॥ अनुत्तरण उत्पाद दश, सूत्र विपाक पिछान | बहुरि प्रश्न व्याकरण जुत, ग्यारह अंग प्रमान ॥ २३ ॥
आचारांग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग ५, ज्ञातृकयांग ६, उपासकाध्ययनांग ७, अंतःकृत दशांग ८, अनुत्तरोत्पादक दशांग ९, प्रश्न व्याकरणांग १० और विपाक सूत्रांग ११ ये ग्यारह अंग हैं ॥ २३ ॥ चौदह पूर्वोके नाम |
उत्पाद पूर्व ग्रायणी, तीजो वीरज वाद |
अस्ति नास्ति प्रवाद पुनि, पंचप ज्ञान प्रवाद ॥ २४ ॥