Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तृतीय भाग। घृणायुक्त जगहमें बैठ कर पेट भर लेते हैं । जिससे बहुत ही हानि होती है और हमेशहके लिये हम रोगग्रस्त हो दुःख उठाते हैं।
मनुष्य देहके लिये जिस प्रकारका प्रहार करना चाहिये उसका हम द्वितीय भागके २०वे पाठमें थोडासा विवरण लिख पाये हैं । कि-"पुष्टिकर द्रव्य खाना चाहिये सो पुष्टिकर पाहार वनाने में कोई बहुत खर्च होता हो सो नहीं है। चने, अरहर, मूंग, उडद इत्यादिकी दाल मात्रमें ही पुष्टिकर शक्ति विद्यमान है इनमें थोडासा घी वा तैल मिलाकर खानेसे ही यथेष्ट पष्टिकर वा सुंदर आहार हो सक्ता है । दूधमें सर्व प्रकारके पुष्टिकर पदार्थ हैं । इसको जहां तक बनै अवश्य खाना चाहिये । इसके सिवाय गेहूं बाजरा यव आदि की रोटी घृत वा सकर (बुरा-चीनी) सहित खानेसे ही यथेष्ट पुष्टि हो सकती है। हमारे देश, दिनों दिन विलायतमें चले जाने के कारण प्रायःसभी खाद्य पदार्थ मँहगे भावसे विकते हैं इसी कारण वहुधा खाद्य पदार्यमें खराब चीजें मिलाकर लोग विक्रय करने लग गये हैं अर्थात् घीमें चर्ची अर्वी आलु, केले, मृगफली नारियलका तेल, वगेरह, धमें पानी, तैलमें दूसरी तरह के तैल, गेहूंके घाटे में जौ जवार व सरांब गेहूंका पाटा वगेरह अन्यान्य कम मूल्य के पदार्थ मिलाकर बेचने लगे हैं। सर्वथा निदोष वस्तु का मिलना कठिन हो गया है, इस कारब जिस प्रकारसे