Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैन बालबोधक
कापत नार वह मुख लार, महामति संगति छांरि गई हैं । - अंग उपंग पुराने परे, तिसनी उर और नवीन भई है ॥ ५ ॥
कवित्त मनहर |
रूपको न खोज रह्यो तरुज्यों तुषार. दह्यो, भयो पतकार किधौं रही डार सूनीसी | कूबरी भई है कठि दूबरी भई देह, ऊर्वरी इतेक आयु सेरमाहि पूँनीसी || जोबनने विदा· लीनी जरानै जुहार कीनी, हीनी भई सुधिबुधि सर्वैवात उनी-सी ॥ तेज घट्यो तात्र घट्यो जीतवको चाव घट्यो, और सव. घट्यो एक तिस्ना दिन दूनीसी || ६ || अहो इन थापने प्रभाग उदै नाहि जानी, वीतराग वानीसार दयारस-भीनी
| जोवनके जोर थिरंजंगम अनेक जीव, जानि जे सताये कछु करुना न कीनी है ॥ तेई अव जीवरास थाये परलोक पास, लेंगे चैर देंगे दुख भई ना नवीनी है। उनहीके भयको भरोसी जान कांपत है, याही टर डोकराने लाठी हाथ लीनी है ॥ ७ ॥
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जाको इंद्र चाहें अहमिंद्र से उपाहें जासौं, जासौं जीवमुक्ति माहि जाय भौमल बहाये हैं। ऐसो नरजन्मपाय विषैविष खायखोयो, जैसे कांच सीटे मूढ मानक गमावै है || माया
६ गर्दन | ७ बुद्धि छोडके चली गई । ८ गात्राणि शिथिलायंते तृष्णैका - तरुणायते । ९ शेष रही है । १० सेरभर रुईमेंसे एक पूनीकी वरावर - ११ कमतीसी । १२ स्थावर एकेंद्रिय जीव । १३ वुड्ढेने । १४ वदलेमें