Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
तृतीय भाग। धार्षिक क्रियाओं का पालना, शूद्रों वाचर्वी चमड़ेसे अस्पर्शित नलका माप्त होना असंभव समझ अनेक ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य जैनजातिवाले नलका जल पीनेमें घृणा करते है, तथा शहरोंके शिवाय छोटे २ गावों और कसयोंमें नल है ही नहीं, जो जलकी प्राप्ति हो । इस कारण शहरनिवासी वावुओंके सिवाय प्रायः सबहीको कूप, नदी या तालावका जल पीना पड़ता है जो कि बहुधा अपरिष्कृत ( मैला) रहता है, इसलिये. जलको शुद्ध (मासुक ) करनेकी क्रिया सबको अवश्यमेव जान लेना चाहिये, क्योंकि अपरिष्कृत जल पीनेसे वा वस्त्रादिक धोने न्हाने भोजनादि पदार्थों में व्यवहार करने से हमारे स्वास्थ्यको बहुत भारी हानि होती है। चाहे तालाघका जल हो, चाहे खड्डेका हो वा दुगंधमय कूएका जल हो, वा हाड मांस मलवाहिनी नदियोंका जल हो, केवलमात्र प्यास मिटाना कर्तव्य है पेसा समझकर जो प्यास मिटानेकी इच्छासे जैसा तैसा जल पीलेना है सो ऐसा जलपान करना विषपान करनेकी समान है। क्योंकि नित्य इसी प्रकारके जल पीनेसे शरीरमें अनेक प्रकारके रोग हो जाते हैं, और शीघ्र ही हम लोगोंको कालके गालका ग्रास बनना पडता है जलको निर्मल करनेकी क्रिया कुछ कठिन भी नहीं है, किंचिन्मात्र परिश्रम करनेसे ही निर्मल जलकी प्राप्ति मले। प्रकार हो सकती है। . १ .जलको निर्मल करनेके लिये कोयले और बालू रेत: