Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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"जैन बालबोधक
है सम्यक्त्व अंग है पहिला, निःशंकित है इसका नाम । इसके धारण करने से ही, अंजन चौर हुआ सुखधाम ॥ ११ ॥
तव (वस्तुका स्वरूप ) यही है, इसी प्रकार है और नहीं है अन्य प्रकारका भी नहीं है इस प्रकार खड्गकी आपके समान सम्मार्ग में धवल श्रद्धान होना सो निःशं'कित अंग है । इस अंग में अंजन चौर प्रसिद्ध हुवा है ॥ ११ ॥ २ । निःकांक्षित अंग ।
मांतिभांतिके कष्ट सहे भी, जिसका मिलना कर्माधीन । जिसका उदय विविध दुखयुत है, जो है पाप वीज अतिहीन ।। जो है सहित लौकिक सुख, कभी चाहना नहि उसको! निःकांक्षित यह श्रग दूसरा, धारानंतमती इसको ॥ १३ ॥
अनेक कष्टोंसे मिलनेवाला, पुण्यकर्मके आधीन जिल के उदयसे बीच २ में दुःख भी होता रहता है, पापका कारण और नाशवान ऐसे संसारी सुखमें इच्छा नहि रखना सो दूसरा निःकांक्षित अंग है इसके पालनेमें अनंतमती नामकी शेठकी पुत्री प्रसिद्ध हो गई है ॥ १२ ॥
३१ निर्विचिकित्सित अंग ।
रत्नत्रय से जो पवित्र हो, स्वाभाविक अपवित्र शरीर । उसकी ग्लानि कभी नहि करना, रखना गुणपर प्रीत सधीर निर्विचिकित्सित श्रंग तीसरा, यह सुजनोंका प्यारा है । पहिले उद्दायन जरपतिने, नीके इसको धारा है ॥ १३ ॥