Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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- तृतीय भाग। नाहिं तौ पाय लगै अब ही, बैंक वायस जीव बचै नघरी है। देह दशा यह दीखत भ्रात, पिनात नहीं किन बुद्धि हरी है ।। संसारका स्वरूप और समयकी बहुमूल्यता ।
कवित्त मनहर। काहूंघर पुत्र जायो काहूके वियोग आयो, काहू राग रंग काहू रोआरोई करी है । जहां भान ऊगत उछाह गीत देखे जात, सांजसमें ताही थान हाय हाय परी है । ऐसी जगरीतिको न देख भयभीत होय, हाहा नर मृद तेरी मति कौन हरी है । मानुप जनम पाय सोक्त विहाय जाय, खो. वत करोरनकी एक एक घरी है ॥ ६॥
सोरठा । कर कर जिनगुन पाठ, जात प्रकारय रे जिया। आठ पहरमें साठ, घरी घनेरे मोलकी ॥ ७॥ कानी कोडी काज, कोरनको लिख देत खत। ऐसे मृरखराज, जगवासी जिय देखिये ॥ ८ ॥
दोहा । कानी कौडी विषय सुख, भवदुख करत अपार ।
विना दिये नहिं छूटि है, लेश दाम उधार ॥९॥ . २ बगुले। ३ कौवे । ४ फूटी कौडीके लिये जैसे कोई.करोड़ों रुपयोंका, । ५ तमसुक (चिठी ) लिख देवें । ६ लेशमात्र भी ।.