Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तृतीय भाग।
सिद्ध परमेष्ठीके गुण । सिद्ध उन्हें कहते हैं जो आठो कोका नाश करके संसारके दुःखोंसे हमेशहके लिये मुक्त हो गये हैं उनके नीचे लिखे आठ गुण होते हैं।
सोरठा। समकित दर्शन ज्ञान, अगुरु लघू अवगाहना । सूछम वीरज बान, निराबाघ गुण सिद्धके ॥ १५ ॥
सभ्यत्व, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अनन्त वीर्य, और अव्यावायत्व ये आठ सिद्धोंके गुण होते हैं। इनका अर्थ इस पुस्तक पढनेवाले विद्यार्थियोंकी समझमें आना कठिन है इस कारण नहि लिखा। विद्यार्थियों को इन आठ गुणोंके नाममात्र याद कर लेने चाहिये ॥ १५ ॥ . .
आचार्य परमेष्ठीके गुग। प्राचार्य उन्हें कहते हैं जो कि मुनियोंके संघके अपिल पति हों, और संघके मुनियोंको दीक्षा ( शिक्षा ) प्रायश्चित्त (दण्ड ) वगेरह देते रहते हैं इनके आगे लिखे ३६ गुण होते हैं,-- द्वादशतप दश धर्म जुत, पालहिं पंचाचार । षट् आवशिक त्रिगुप्ति गुन, प्राचारज पद सार ।। १६ ।।