________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका 23 __ अब अन्य विपरीत विचारवालों को समझाते हैं - 20. प्रश्न : शब्दशास्त्रादिक का पक्षपाती कहता है कि व्याकरण, न्याय, कोश, छंद, अलंकार, काव्यादिक ग्रन्थों का अभ्यास किया जाय तो अनेक ग्रन्थों का स्वयमेव ज्ञान होता है व पण्डितपना भी प्रगट होता है। इस शास्त्र के अभ्यास से तो एक इसी का ज्ञान होता है व पण्डितपना विशेष प्रगट नहीं होता; अत: शब्द-शास्त्रादिक का अभ्यास करना। उत्तर : यदि तुम, लोक में ही पण्डित कहलाना चाहते हो, तो तुम उन ही का अभ्यास किया करो और यदि अपना (हितरूप) कार्य करने की चाह है, तो ऐसे जैन ग्रन्थों का ही अभ्यास करने योग्य है। तथा जैनी तो जीवादिक तत्त्वों के निरूपण करनेवाले जो जैन ग्रन्थ हैं, उन्हीं का अभ्यास होने पर पण्डित मानेंगे। 21. प्रश्न : वह कहता है कि मैं जैन ग्रन्थों के विशेष ज्ञान होने के लिये व्याकरणादिक का अभ्यास करता हूँ। उत्तर : ऐसा है, तो भला ही है; किन्तु इतना है कि जिसप्रकार चतुर किसान अपनी शक्ति अनुसार हलादिक द्वारा खेत को अल्प-बहुत सम्हालकर समय पर बीज बोवे, तो उसे फल की प्राप्ति होती है। उसीप्रकार तुम भी यदि अपनी शक्ति अनुसार व्याकरणादिक के अभ्यास से बुद्धि को अल्प बहुत सम्हालकर जितने काल तक मनुष्य पर्याय तथा इन्द्रियों की प्रबलता इत्यादिक हैं, उतने समय में तत्त्वज्ञान के कारण जो शास्त्र हैं, उनका अभ्यास करोगे, तो तुम्हें सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति हो जायेगी। जिसप्रकार अज्ञानी किसान हलादिक से खेत को संवारता-संवारता ही समय खोवे और समय पर बीज न बोवे तो उसको फल-प्राप्ति होनेवाली नहीं, वृथा ही खेदखिन्न होगा। उसीप्रकार तू भी यदि व्याकरणादिक द्वारा बुद्धि को संवारता-संवारता ही समय खोयेगा, तो सम्यक्त्वादिक की प्राप्ति होनेवाली नहीं, वृथा ही खेदखिन्न होगा।