________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका उनको तो वहाँ शुद्ध उपदेशरूप जो शुद्धनिश्चयनय है, वही कार्यकारी है। जो स्वानुभवदशा को प्राप्त नहीं हुए हैं तथा जो स्वानुभवदशा से छूटकर सविकल्पदशा को प्राप्त हुए हैं - ऐसा अनुत्कृष्ट जो अशुद्धस्वभाव, उसमें स्थित जीवों को व्यवहारनय प्रयोजनवान है। वही अध्यात्मशास्त्र समयसार गाथा-१२ में कहा है - सुद्धो सुद्धादेसो, णादव्वो परमभावदरसीहिं। ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे / / इस गाथा की व्याख्या के अर्थ को विचार कर देखना / सुनो ! तुम्हारे परिणाम स्वरूपानुभव दशा में तो वर्तते नहीं और विकल्प जानकर गुणस्थानादि भेदों का विचार नहीं करोगे तो तुम इतो भ्रष्टः ततो भ्रष्टः, होकर अशुभोपयोग में ही प्रवर्तन करोगे, वहाँ तेरा बुरा ही होगा। और सुनो ! सामान्यपने से तो वेदान्त आदि शास्त्राभासों में भी जीव का स्वरूप शुद्ध कहते हैं, वहाँ विशेष को जाने बिना यथार्थ-अयथार्थ का निश्चय कैसे हो? ___ इसलिये गुणस्थानादि विशेष जानने से जीव की शुद्ध, अशुद्ध एवं मिश्र अवस्था का ज्ञान होता है, तब निर्णय करके यथार्थ को अंगीकार करना / और सुनो! जीव का गुण ज्ञान है, सो विशेष जानने से आत्मगुण प्रगट होता है, अपना श्रद्धान भी दृढ़ होता है। जैसे सम्यक्त्व है, वह केवलज्ञान प्राप्त होने पर परमावगाढ़ नाम को प्राप्त होता है, इसलिये विशेषों को जानना। 19. प्रश्न : आपने कहा वह सत्य; किन्तु करणानुयोग द्वारा विशेष जानने से भी द्रव्यलिंगी मुनि अध्यात्म श्रद्धान बिना संसारी ही रहते हैं और अध्यात्म का अनुसरण करनेवाले तिर्यंचादिक को अल्प ज्ञान होने पर भी यथार्थ श्रद्धान से सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है तथा तुषमाषभिन्न: इतना ही श्रद्धान करने से शिवभूति नामक मुनि मुक्त हुए हैं। अत: हमारी बुद्धि से तो विशेष विकल्पों का साधन नहीं होता। प्रयोजनमात्र अध्यात्म का अभ्यास करेंगे। उत्तर : द्रव्यलिंगी जिसप्रकार करणानुयोग द्वारा विशेष को जानता है,