________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका कार्यकारी होता है; जिसप्रकार असंयत गुणस्थान में विषयादिक के त्याग बिना भी मोक्षमार्गपना होता है। 15. प्रश्न : जो धर्मार्थी होकर जैनशास्त्रों का अभ्यास करता है, उसके विषयादिक का त्याग न हो सके, ऐसा तो नहीं बनता; क्योंकि विषयादिक का सेवन परिणामों से होता है और परिणाम स्वाधीन होते हैं। उत्तर : परिणाम दो प्रकार के हैं - एक बुद्धिपूर्वक, एक अबुद्धिपूर्वक। वहाँ जो परिणाम अपने अभिप्राय के अनुसार हों, वे बुद्धिपूर्वक और जो परिणाम दैव (कर्म) निमित्त से अपने अभिप्राय से अन्यथा (विरुद्ध) हों, वे अबुद्धिपूर्वक। जिसप्रकार सामायिक करते समय धर्मात्मा का अभिप्राय तो ऐसा होता है कि मैं अपने परिणाम शुभरूप रखू, वहाँ जो शुभ परिणाम ही हों, वे तो बुद्धिपूर्वक हैं और यदि कर्मोदय से स्वयमेव अशुभ परिणाम हों, वे अबुद्धिपूर्वक जानना। __उसीप्रकार धर्मार्थी होकर जो जैनशास्त्रों का अभ्यास करता है, उसका अभिप्राय तो विषयादिक के त्यागरूप वीतरागभाव की प्राप्ति का ही होता है। वहाँ पर वीतरागभाव होता है, वह बुद्धिपूर्वक है और चारित्रमोह के उदय से (उदय के वश होने पर) सरागभाव होता है, वह अबुद्धिपूर्वक है। अतः स्ववश बिना (परवश) जो सरागभाव होते हैं, उनसे उसकी विषयादिक की प्रवृत्ति दिख रही है। क्योंकि बाह्यप्रवृत्ति का कारण परिणाम है। 16. प्रश्न : यदि इसीप्रकार है, तो हम भी विषयादिक का सेवन करेंगे और कहेंगे - हमारे उदयाधीन कार्य होते हैं। उत्तर : रे मूर्ख ! कहने से तो कुछ होता नहीं, सिद्धि तो अभिप्राय के अनुसार होती है / इसलिए जैनशास्त्रों के अभ्यास के द्वारा अपने अभिप्राय को सम्यक्प करना। अन्तरंग में विषयादिक सेवन का अभिप्राय हो, तो धर्मार्थी नाम नहीं पाता। इसप्रकार चरणानुयोग के पक्षपाती को इस शास्त्र के अभ्यास में सन्मुख किया।