________________
( ११ )
'
जमदग्नि नामक तापसको देखा । इसकी परीक्षा करने के लिये वे दोनों देव चीडियोंका रूप धारण कर उस ऋषिकी दाढीके बाल में घोंसला बांध कर रहे । इनमें एक था नर और दूसरी थी मादा । नर, मादाके प्रति मनुयोंकी भाषा में कहने लगा:- मैं हिमवंत पर्वतको हो आऊं, वहां तक तूने यहाँ रहना । मादाने ( चीडीने ) अपने पतिकी आज्ञाका निरादर करते हुए कहा :6 तू वहाँ जा कर दूसरी चोडीके साथ आसक्त हो जाय तो मेरी क्या दशा हो ? तब वह पक्षी बोला कि - ' मैं वापिस न आऊं, तो मेरे सिर गौहत्या व स्त्रीहत्या का पाप हो । ' इत्यादि बातें कहीं; परंतु चीडीने नहीं मानी और कहने लगी: - यदि तू किसी चीडियाके साथ यारी करे, तो इस ऋषिने जितना पाप किया है, वह सब पाप तेरे सिर पर पडे । इस प्रकारकी प्रतिज्ञा कर ले, तो मैं तेरेका जाने दूं ।
"
"
इस बातको श्रवण करते ही जमदग्नि तापसने क्रोधित होकर अपनी दाढीमें हाथ डाला, और उन दोनों को पकड़ लिये । फिर वह कहने लगा- ' अरे ! मैं इतने कठिन तप करके पापोंको नाश कर रहा हूँ, तिस पर भी तुम मुझे पापी कहते हो ? ' चीडियोंने उत्तर दिया:-' हे ऋषि ! आप क्रोध मत कीजिये और अपना शास्त्र देखिये । उसमें कहा है किः
।
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्त्रर्गो नैत्र च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्टा स्वर्गे गच्छन्ति मानवाः ॥ १ ॥
www.umaragyanbhandar.com
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat