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यह बात तो प्रत्यक्ष देखी जाती है । यदि तेरे कथनानुसार जीवही नहीं है तो पिता प्रमुख वडिलोंके नाम कहना भी तेरे लिये व्यर्थ है । तथा कोप, प्रसाद, शोक, क्षुधा, तृषा, तृप्त पीडित आदि बातोंको अनुमानसे जानते हैं अतएव जीव है । फिर तूने कहा कि पंच महाभूत हैं वही आत्मा है यह भी असत्य है, क्योंकि पांच भूत तो जड हैं, अतः जो जड हैं वे चैतन्य कसे हो सकते हैं ? वालुको पीलनेसे उसमेंसे तेल नहीं निकल सकता
तथा तूने जो शुभाशुभ कर्म कुछ भी नहीं हैं इस बात के ऊपर पाषाणका दृष्टांत दिया वह भी अयुक्त है । क्योंकि एक सुखी एक दुःखी एक चाकर एक ठाकर ॥ इत्यादि अच्छे बुरे जो द्वंद हैं वे सब कर्मके योगसे ही हैं अतएव तप संयमरूप धर्म सफल है, निष्फल नहीं । धर्म के फल यहां ही देखे जाते हैं इस वास्ते धर्म भी है परलोक भी है और सर्वज्ञ भी है । उनके कहे हुए शास्त्रके योगसे चंद्र, सूर्य ग्रहण प्रमुखको जान सकते हैं अतः तू कदाग्रह छोड ।
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इत्यादि अनेक उत्तर प्रत्युत्तर दे कर शूरको निरुत्तर किया। तब राजाने शिष्यकी प्रशंसा की और शूरको राजाने कहा कि 'हे पापी ! तू पिताको भी नहीं मानता है और सबको उत्थापता है, ऐसा कह कर राजाने रोष ला कर शूरको पकडा । उसको शिष्यने छुडाया । तब राजा फिर कहने लगा कि देखो इस शिष्यमें दयाका गुण कैसा है ? यह निरीह है, सच्चा सदाचार कहता है । ऐसा कह कर शूरको अपने नगर मेंसे
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