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(१४६) महत्त्व पा कर स्वल्प कालमें मोक्ष पावेगा । उनकी कथा इस प्रलारकी हैं।
" राजगृही नगरी में एक शूर व दूसरा वीर, ये दो गृहस्थ रहते थे । वे दोनों शख्स छोटी वयमें एकही गुरुके पास पढे, परंतु पीछेसे शूरको नास्तिक लोगोंकी संगति हुई । मनुष्य अपने समान संगतिवाले मनुष्यके मिलनेसे आनंद पाता. है । जिससे दुःसंगसे बडाकदाग्रही हुआ, वह उद्धत हो कर धर्मका उत्थापन करने लगा, अपनी बुद्धिमत्ताके आगे दूसरोंको तृणवत् समझने लगा, लोग सुखके अर्थकी बात कहें तो उसेभी मानता नहीं।
एकदफे चार ज्ञानके धारक सुदत्त नामक गुरु पधारे, उनको धर्मार्थी लोग और वीर आदि सर्व वंदन करनेको गये, और शूर महा अहंकारी हो कर गुरुका माहात्म्य सुन कर मनमें ईर्ष्या करता हुआ वहां आया । गुरुको कहने लगा कि तुम लोगोंको? फिजुल क्यों फुसलाते हो ? यदि तुम्हारेमें शक्ति होवे, तो मेरे साथ वाद करो। यह सुन कर गुरुजीका एक शिष्य उसे कहने लगा कि'अरे मूर्ख ! सर्वज्ञके समान मेरे गुरुके साथ तू वाद कैसे कर सकेगा ? मैंही तेरे अहंकारको नष्ट कर दूंगा। और तेरेको उत्तर दूंगा; परंतु सभा, सभापति, वादी, और प्रतिवादी, इन चारोंसे युक्त चतुरंग वाद कहा जाता है, अतः ऐसा चतुरंग वाद होवे तो मैं करूं ।' शूरने भी मंजूर किया । फिर दूसरे दिन प्रातःकालमें चतुरंगका स्थापन होनेसे वाद करना प्रारंभ किया ।
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