Book Title: Gautam Pruccha
Author(s): Lakshmichandra Jain Library
Publisher: Lakshmichandra Jain Library

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Page 150
________________ ( १४५ ) की । दीक्षा भली भांति आराध कर स्वर्गादिक सुखोंको प्राप्त किये । "" अब छेंतालीसवीं और सेंतालीसव पृच्छाका उत्तर कहते हैं । न य धम्मो न य जीवो न य परलोगुत्ति न य कोइ । रिसिपि नो मन्नइ मूढो तस्स थिरो होइ संसारो ॥ ६० ॥ धम्मवि अत्थि लोए अत्थि अधम्मोवि अत्थि सव्वन्नू । रिसिणोवि अत्थि लोए जो मन्नइ सोप्प संसारी ॥ ६१ ॥ I अर्थात्-धर्म नहीं है, जीव है, कोई ऋषीश्वर नहीं है, इस मानता है उसके लिये संसार निकट नहीं होता (६०) नहीं है, परलोक नहीं प्रकार जो नास्तिक पुरुष अत्यंत बढ़ता है मोक्ष तथा लोकमें धर्म है, अधर्म भी है, सर्वज्ञ भी है, और लोकमें ऋषि भी है, इस प्रकार जो जीव माने वह जीव बहुल संसारी नहीं होता, अल्प संसारी हो कर शीघ्र मोक्षमें जाता है ( ६१ ) जिस प्रकार राजगृही नगरी में एक पंडितके पास शूर दूसरा वीर नावक दो शिष्योंने शिक्षा पाई । उनमें से शूर तो धर्ममार्गका उत्थापन करने से यहां भी दुःखी हुआ । और फिर भी संसार में भ्रमण करेगा। कुसंगति के कारणसे नास्तिकवादी हुआ, और वीर तो सद्गुरुकी संगतिसे जानकार हुआ । धर्ममार्गको स्थापित करता हुआ, वहीं 10 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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