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(७४) लमें समुद्रदत्त सेठको जिमता हुआ देखा । इस प्रकार उस ऋषिको अपने घरमें इधर उधर घूमता हुआ और वस्तुओंको देखता हुआ देख कर सेठने पूछा कि-'महाराज! क्या देखते हो ?' तब ऋषिने कहा कि-हे सेठ ! ये पाट, कुंडी,कटोरे और थाल प्रमुख तुमने बनवाये हैं, किंवा तुम्हारे पूर्वजोंने बनवाये हैं ?' सेठने कहा कि ये सब चीजें प्रथममेही मेरे घरमें हैं । ऋधिने कहा कि, तुम ऐसे खंडित थालमें भोजन क्यों करते हो? सेठने कहा कि-क्या करूं? इम थाल में खंड चिपकता नहीं । तब ऋषिने कमरमसे थालका खंड निकाल कर थाल उठा कर उसके साथ मिला दिया। वह खंड स्वयं चिपक गया। थालको संपूर्ण अखंड देख कर मेठके कुटुम्बको कौतुक हुआ । साधु चलने लगे। नव सेठने वंदन करके पूछा कि महाराज! यह क्या बात है ? साधुने कहा कि तू असत्य बोलता है, तो मैं तुझे क्या कहुं ? सेठने कहा कि-हां. मैं असत्य बोला हुं; परन्तु सत्य बात तो यह है कि, यह ऋद्धि मेरे यहां आठ वर्षसे आइ है। .
माधुने कहा कि-'इम ऋद्धिको मैंने पिछान ली है। ये सब मेरे पितामह के समयकी है; परन्तु मेरे पिता मर जाने के बाद में उसका मुधन नामक पुत्र था और मेरे हाथसे यह ऋद्धि चली गइ । जिससे मैंने वैराग्य पा कर दीक्षा ली। मुझे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। जिससे मैं यहां पर आया हुँ।' सेठने कहा कि-'यह सर्व लक्ष्मी तुम्हारी ही है, अब इसे ग्रहण कर सुखी हो ।' साधु बोले कि-मेरे देखते तो वह चली गइ, अतः अब मैं उसका उपभोग कैसे करूं? सेठने पूछा कि हे भगवन्! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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