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(१०५) तके साथ ब्याही हुं और मेरी कबडी बहिनको यक्षने धनपालके साथ ब्याही है। अब जैसा युक्त होवे वैसा करिए । देवताने जो किया वह अन्यथा किस तरह हो सकता है ? अतः मुझे यह कबडाही भरतार रहनेदीजिये। फिर राजाने कई सजनोंको बुला कर सर्व वृत्तांत कह सुनाया । वे भी सब समझ कर घरको चले गये ।
एकदिन उस नगरके वनमें धर्मरुचि नामक आचार्य चार ज्ञानके धारक आ कर समोसरे । उनको वंदना करनेके लिये सब लोक गये, उसके साथ धनदत्त भी अपनी बी सहित गया । मुनिको वंदन कर धनदसने पूछा कि हे भगवन् ! किस कर्मके योगसे मैं कवडा हुआ। और किस कर्मके योगसे मेरी स्त्री धनश्रीका मेरे ऊपर बहुतही स्नेह है ? तथा किस शुभकर्मके योगसे मुझे बहुत लक्ष्मी-सुख-सौभाग्य मिला है ? सो मेरे पर कृपावंत हो कर कहिए ।
गुरु बोले कि-हे धनदत्त ! तू पूर्वभवमें धन्ना था और धनश्रीका जीव धीरू नामा तेरी स्त्री थी, तूने बैल व रासभादिकके ऊपर बहुत भार भरा था, जिससे तू कुबडा हुआ, ओर भावसे साधुको दान दिया, जिप्तके योगसे लक्ष्मीका योग अखंड रहा। गतभवमें तुम दोनों स्खी भरतार थे, जिससे तुम्हारा स्नेह भी अखंड रहा है। ऐसी बात सुननेसे दोनोंका जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । पूर्वभव देखे । फिर सम्यक्त्व मूल बारह व्रत अंगीकार करके मुनिको वंदना करके घरका पहुंचे। अनुक्रमसे धर्म पालते हुए, सुपात्रको दान देते हुए आयु पूर्ण करके देवलोक देवता हुए।"
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