Book Title: Gautam Pruccha
Author(s): Lakshmichandra Jain Library
Publisher: Lakshmichandra Jain Library

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Page 112
________________ (2009) करके वह पुत्र अपने मातपिताकोभी अत्यंत खेदका कारणभूत हुआ । उसके पिताने उसे कहा कि हे वत्स ! लोकव्यवहारही अच्छा है, कर्मके वश ब्राह्मण भी हीन जातिको प्राप्त करता है, अतः किसी जीवके लिये जाति शाश्वत नहीं है । इस वास्ते मद नहीं करना और यदि करना तो केवल इतनाही कि जिससे लोक हांसी न करे । इत्यादि शिक्षा उसका पिता देता था, परन्तु वह मानता नहीं । उन्मत्त हाथीकी तरह खुमारीमें जातिका अभिमान करता ही रइता । उसका पिता जब देवशरण हुआ तब राजाने, पुरोहितका पुत्र अहंकारी था इस लिये, अयोग्य जान कर उसके पिताके पद पर स्थापित नहीं किया । दूसरेको पुरोहित पद प्रदान किया । इस भांति मदके करनेसे यहांही पदभ्रष्ट हुआ और लोकमें हांसी हुई । लोगोंने उसका ब्रह्मदत्त ऐसा नाम रक्खा । पदवीके जानेसे निर्धनी हो गया । कृतघ्नी हुआ । तब गौएं, बैल आदि बेच कर उदरपूर्ति करने लगा । सब लोक उसकी निंदा करने लगे । एकदिन गौंओंको घास डालता हुआ देख कर किसी ने उसको कहा किहे ब्रह्मदत्त । ये तृण, कि जिनको तू स्वहस्तसे उठा रहा है. उन सब तृणोंको मातंगीने पैरोंके नीचे कुचले हुए है, जिससे तेरेको दोष नहीं लगता है क्या ? अनेक रीतिसे लोक उसकी हांसी करने लगे, क्रोधित हो कर गांव छोड कर चला गया । रास्ता भूल गया । वहां पर डुंबोको देख कर कर के हनने लगा, तब डुंबने कोप करके ब्रह्मदत्तके पेटमें छुरा मारा, जिससे वह मृत्यु पा कर डुंबाके वहां पुत्र इस प्रकार जिससे वह चलते हुए आक्रोश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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