Book Title: Gautam Pruccha
Author(s): Lakshmichandra Jain Library
Publisher: Lakshmichandra Jain Library

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Page 146
________________ ( १४१ ) जीव 'साधारण' इस नामका पुत्र था । वे पिता पुत्र दोनों दयावंत थे, उसमें साधारण तो निष्पाप व्यवसाय करता था । मृग, छाग, तित्तर, चीडियां आदिको बंधनमुक्त कराता । बंधीवान जनोकों अपने घरका द्रव्य दे कर छुडाता था, मरते हुए प्राणीको छुडाता था । देवगुरु धर्मके संसर्गमें धर्मरंगमें भींजा हुआ रहता था, श्रीशत्रुजय तीर्थकी उसने यात्रा की। आयु पूर्ण करके देवलो - कमें वह देवता हुआ । जिनमें धरणाका जीव तो तुम हो और साधारणका जीव तुम्हारे वहां जिनदत्त पुत्र हुआ है वह है । महा धनवंत, नीरोगी व सुखी हुआ, यह सर्व पूर्व पुण्यका प्रभाव जानना । ऐसे गुरुके मुखकी बानी श्रवण कर दोनोंको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । पूर्वके भव देखे । वैराग्य उत्पन्न हुआ, तब दीक्षा लेनेको तत्पर हुए। गुरुने कहा कि - अब तुम्हारा आयुष्य बहुत बाकी है, और भोगावली कर्म भी बहुत है, इसलिये तुम सविशेष श्रावकधर्म करो । यह सुन कर पिता पुत्र दोनों गुरुको वंदना करके घरको आये । अनेक प्रकारके पुण्य किये, सुकृत किये, दान दिये और व्रत ले कर दोनों देवलोकमें देवता हुए। वहांसे चव कर मनुष्य जन्म पा कर मोक्षमें जायंगे । अब पेंतालीसवीं पृच्छाका उत्तर एक माथाके द्वारा कहते हैं । जया मोहोदओ तो अन्नाणं खु महाभयं । कोमले वियणिज्जं तु तथा एगिंदियत्तणं ॥ ५९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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