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( ११६) श्रावक धर्म अंगीकार करके अपने घरको आया। नित्य देवपूजा करता, नवकारका जाप करता, गुरुवंदन करता और दान देता । फिर एकदा अपने पुत्रको योग्य जान कर उसको घरका भार सुपुर्द किया और अपने सेठ पद पर स्थापित किया। पश्चात् पुण्यसारने सुनंद नामक गुरुके पास दीक्षा ली । निरतिचारपणे चारित्रधर्मका पालन कर देवता हुआ। वहांसे चव कर पुनः मनुष्य जन्म पा कर मोक्ष सुख संपादन करेगा।"
जिण पूजे वंदे गुरु भावे दान दियंत ।
पुण्यसार जिम तेहने ऋद्धि अचिंति हुँत ॥१॥ अब पेंतीसवीं व छत्तीसवीं पृच्छाका उत्तर दों गाथाओंके द्वारा कहते हैं ।
वीसत्थघायकारी सम्ममणालोइऊण पच्छितो। जो मरइ अन्नजम्मे सो रोगी जायए पुरिसो ॥५०॥ वीसत्थ रक्खण परो आलोइअ सब पावठाणो य । जो मरइ अन्नजम्मे सो रोग विवन्जिओ होइ ॥५१॥
अर्थात्---जो मनुष्य विश्वासघात करता है और सम्यक् मनसे अर्थात् शुद्ध मनसे शुद्ध आलोयणा नहीं लेता, वह पुरुष मर कर अन्य जन्ममें यानि भवान्तरमें रोगी होता है (५०) तथा जो पुरुष विश्वासीकी रक्षा करने में अग्र होता है और अपने किये हुए पापस्थानकोंको शुद्ध मनसे आलोचता है, वह भवान्तरमें रोग विवजित होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com