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(१२०) चेलाने कहा कि-मैं अन्यत्र भिक्षाके लिये जाउं ? वहूने कहा-जिस प्रकार उचित समझें वैसा करें । फिर साधु भी उस कृपणका घर छोड कर अन्य घरमें आहार लेनेके लिये गया।
गवाक्षमें बैठे हुए सेठजीने यह सब बात सुन कर विचार किया कि-इन दोनोंके वचन मिलते हुए नहीं हैं । उस समय बहूको बुला कर पूछा कि-दो प्रहर हुए तिस पर भी तुमने चेलाको ऐसा क्यों कहा कि प्रातःकाल है ? फिर चेलाने कहा कि हम डरते हैं। तब तुमने कहा कि हमारे घरमें सब वासी अन्न जिमते हैं, अपने घरमें तो सर्वदा नयीही रसवती बनाइ जाती है, और सर्व कुटुंब ताजी रसवती खाते हैं, परंतु ठंडी रसोइ तो कोइ खाताही नहीं है । तिस पर भी तुमने चेलाको ऐसा कहा इसका कारण क्या ? यह श्रवण कर बहू बूंघट करके लज्जावती हो कर कहने लगी कि-हे तातजी ! सुनो, मैंने चेलाको कहा कि-तुमने सवारमें यानि बहुत शीघ्र छोटीवयमें दीक्षा क्यों ली ? तब चेलाने कहा कि 'धर्मिणि वार न जाणीए,' सो मैं डरता हुं, क्योंकि संसार असार है, आयु अस्थिर है, उसका भय लगता है, अतएव समय क्यों गुमावें ? क्योंकि जीवितव्य वीजलीके झबकारके सदृश है । फिर मैंने कहा कि-हमारे घरमें वासी जिमते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि हमने गत भवमें दान पुण्य किये हैं जिसके योगसे ऋद्धि मिली है, परन्तु इस भवमें दान पुण्य कुछ करते नहीं है जिससे नया कुछ उपार्जन नहीं होता है, इस लिये वासी भोजन करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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