Book Title: Gautam Pruccha
Author(s): Lakshmichandra Jain Library
Publisher: Lakshmichandra Jain Library

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Page 130
________________ फिर तू कहता है कि-तुम अशौच हो, यह भी अस. त्य कहता है। पानी ढोल कर स्नान करके अपकाय जीवोंकी विराधना करनेसे कुछ शौचत्व नहीं होता है। यदि स्नान करनेसे शौचत्व होता हो तो पानी में रहनेवाले मच्छ कच्छ सर्व सदैव स्नानही करते हैं। वे सब तेरे कथनानुसार पवित्र होने चाहिये; परन्तु मनःशुद्धिके विना शौचत्व नहीं होता है, मनःशुद्धिकोही शौच कहा है । पुराणमें कहा है: चित्तमंतर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानै शुद्धयति । शतशोऽथ जलैधौतं सुराभांडमिवाशुचि ॥ १ ॥ किंच सत्यं शौचं तपः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदयाशौचं जलशौचं च पंचमम् ॥ २ ॥ चित्तं रागादिभिः क्लिष्टमलीकवचनैर्मुखं । जीवहिंसादिभिः कायो गंगा तस्य पराङ्मुखी ।।३।। अर्थात्:--जिसका अंतःकरण दुष्ट है, वह पुरुष स्नानसे शुद्ध नहीं होता। प्रथम सत्यरूप शौच, दूसरा तपरूप शौच, तीसरा इंद्रियनिग्रहरूप शौच, चौथा सर्व भूतपर दयारूप शौच और जल शौच तो अन्तिम पांचवां शौच है। तथा जिसका चित्त रागादिकसे क्लिष्ट है, असत्य वचन वोलनेसे जिसका मुख अपवित्र है, तथा जीव हिंसादिकसे काया जिसकी अपवित्र है ऐसे पुरुषको गंगा भी पवित्र नहीं कर सकती । अर्थात् गंगा भी उनसे पराङ्मुख रहती है। पुनः कहा है किShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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