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एक दिन ज्ञानी मुनिको दुर्गंधा सम्बन्धी बात पूछने से उन्होंने कहा कि - गिरिनार पर्वतके पास गिरि नगरीनें पृथ्वीपाल राजा रहता था। उसकी रानीका नाम सिद्धिमती है | एकदा राजा रानी दोनों वनमें क्रीडा करनेको गये ! उस असेंमें गुणसागर नामक एक मुनि मासखमणकर पारणाके दिन गौचरी करनेको नगर में जाते थे । उन्हें देखकर राजाने भक्तिपूर्वक वंदना नमस्कार करके रानीको कहा कि यह जंगमतीर्थ है उनको निर्दोष आहार पानी दे कर लाभ उठाओ । रानीकी इच्छा न होते हुए भी उनको वापिस लौटना पड़ा। रानी मनमें विचार करने लगी कि इस मूंडने आ कर मेरी क्रीड़ाम विघ्न डाला । जिससे क्रोधित होकर एक कडुआ तुम्बा साधुको वहराया । साधुने विचार किया कि यह आहार जहां कहीं मैं परढूंगा वहां अनेक जीव मर जायेंगे । ऐसा सोचकर खुद ही वह कटुतुंबका शाक खागये और कटु तुम्बा के विष प्रयोगसे शुभ ध्यानमें मृत्यु पाकर देवलोकमें देवता हुआ । पीछेसे राजाको यह बात अवगत हुई । राजाने रानीको घरसे बाहर निकाल दी । रानीको जंगल में भटकते हुए सातवें दिनको कुष्ट रोग निकला | जिससे अत्यंत पीडित हुई और अन्तमें मरकर छट्ठी नरकमें गई । वहांसे मरकर तिर्यचमें उत्पन्न हुई, पुन: नरक में गई । इस प्रकार सातों नर्कमें क्रमशः दुःख भोगकर सर्पिणी, ऊँटणी, मुर्धी, शृगालिनी, सूयरी, घिरोली, उंदरी ( मुशी ), जलो, चांडालिणी, रासभी प्रमुख के अवतार उसने लिए । एकदा गायके जन्म में मरते समय नवकार मंत्र सुनकर सेठ के घर में दुर्गंधा
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