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पहुंचाया । वहां वीतशोक राजाने भी शुभ दिन को नगरमें प्रवेश करनेका महोत्सव किया ।
कुछ दिनोंके बाद अशोककुंवरको राज्यासन पर बैठा कर वीतशोक राजाने दीक्षा ली । अब अशोक राजाको राज्य संपदा तथा राणी समेत सुख भोगते हुए गजेन्द्रके सदृश आठ पुत्र हुए और चार पुत्रीएं हुई ! एकदिन राजा-रानी दोनों सातवें मंजल पर गोख में लोकपाल पुत्रको गोद में ले कर बैठे थे । उस अर्से में कोई एक स्त्री छाती पीटती, विलाप करती, रोती हुई और पुत्रके गुण बोलती दैवको ओलंभा देती हुइ निकली । उसे देखकर रोहिणीने राजासे पूछा कि, हे स्वामिन् ! यह किस किसमका नाटक कर रही है ? राजाने कहा, हे रानी ! तू धन, यौवन, राज्य, मंदिर, भरतार, प्रासाद, और पुत्रादिकसे पूरण हो कर अहंकार मत कर । यद्वा तद्वा मत बोल | रानी बोली, स्वामिन् ! रोस मत करो । मुझे कुछ अहंकार नहीं है । मैंने ऐसा नाटक कभी देखा न था, जिससे आपको पूछा है । राजाने कहा कि देख, तेरेको भी मैं रुदन करना सीखाता हुं । ऐसा कह कर रानीकी गोद में से बालकको ले कर दोनों हाथोंके द्वारा गवाक्षके बाहर झूलाते हुए नीचे डाल दिया । यह देख कर सर्व लोग कोलाहल करने लगे; परंतु रोहिणीके मनमें कुछ भी दुख न हुआ । पुत्रको पडते हुए नगरदेवताने पकड कर सिंहासन पर बैठाया । यह देख कर सब लोग हर्षित हुए और राजा कहने लगे कि हे रोहिणी ! तू धन्य - कृतपुण्य है । जिससे तू दुःखकी बात
भी नहीं जानती है ।
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