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(८१) नामक वणिक् रहता था, उसे देशल और देदा नामक दो पुत्र हुए । उनमें देशल महा दयावान् था, और देदाका हृदय निर्दय था। युवावस्था प्राप्त होते देशलकी देवीनी, और देदाकी देमती नामा कन्याओंके साथ शादी की । उनमें देशल धर्मकरणी करता, लक्ष्मी भी उपार्ज करता और सुख भी भोगताथा । इस प्रकार तीनों पुरुषार्थ साधताथा ।
और देदा तो केवल लक्ष्मी उपार्जन करना और सुख भोगना इतनाही केवल साधता था परन्तु धर्म नहीं करता था । महा लोभी होनेसे धर्मकी बात भी नही जानता था अनुक्रमसे देशलको गुणवंत पुत्र हुए। उनकी माता देवीनी अपने पुत्रोंका पालन करती, गोद में बैठाती, परस्पर लड़ते तो रोकती । वेभी बाहरसे आ कर शीघ्र अपनी माताको लते । एकको देखे, एकके मुखको माता चुम्बन करती। ऐसा देख कर देदा और देमती अपने हृदयमें चिंतातुर हुए और परस्पर बात करने लगे कि-अपनेको पुत्र नहीं है, अतः अपना यह संयोग, यह ऋद्धि, यह स्नेह और यह जीवित इत्यादि सर्व किस कामके हैं ? किसीने यथार्थ ही कहा है किः
अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्या अबांधवाः । मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्यं दरिद्रता ॥ १ ॥
ऐसा विचार कर पुत्र के लिये अनेक देव देवियोंकी मानता की। एक दिन सत्यवादी यक्षका आराधन किया । देदा यक्षकी पूजा और उपवास करके आगे बैठा
और कहा कि-जब मुझे पुत्र दोगे तब मैं ऊंटुंगा। इस प्रकार बैठते हुए उसे ग्यारह उपवास हो गये। तब यक्ष
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