Book Title: Gautam Pruccha
Author(s): Lakshmichandra Jain Library
Publisher: Lakshmichandra Jain Library

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ ( १२ ) ' जिसको पुत्र नहीं है, उसकी गति ( सद्गति ) नहीं होती, वह स्वर्गमें नहीं जा सकता। आप भी अपुत्र हैं, जिससे आपकी भी सद्गति कहां है ? इस बातको ऋषिने सत्य मानलिया और विचार करने लगा किकिसी खीके साथ पाणिग्रहण करके पुत्र उत्पन्न करूं । यह सोच कर तपका त्याग कर दिया और उसने कौष्टिक नगर में जितशत्रु राजा, जिसके वहाँ अनेक पुत्रियां थीं उस के पास जानेका विचार किया । ऋषि मनको इस प्रकार चलायमान देख, जो मिथ्यात्वी देव था, उसको खेद हुआ । और उसने तुर्त्तही श्रावकधर्म अंगीकार किया । " उधर तापस, राजाके पास कन्याकी याचना करने को गया । तापसको देख राजा आसन से उठ खडा हुआ ! और कुछ सामने भी आया । जब ऋषिने कन्याकी याचना की, तब राजाने उसको कहा कि-' मेरी सौ पुत्रिओं में से जो आपकी वांछा करे, उसको आप अंगीकार करें | यह श्रवण कर ऋषि भी अंतेउर में गया । वहां जाते ही सभी राजकन्याएं उसे जटाधारी, दुर्बल, भीख मंगा, श्वेतकेशवाला, व असंस्कारी शरीरवाला देख कर उस पर थूकने लगीं । ऋषिको बड़ा क्रोध हुआ । उस क्रोध के मारे अपने तपके प्रभावसे उन सब कन्याओंको कुबड़ी व कुरूपिणी बना दीं और पीछे लौटा। उस समय घरके चौक में धूल में खेलती हुई एक राजकन्या को उसने देखा । उसके सामने हाथ में बीजोरा फल रख कर कहने लगा-' हे रेणुका ! तु मुझको चाहती है ? उस समय उस लडैकीने बीजोराकी तरफ अपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160