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(४५) उस सेठकी कथा इस प्रकार है:-" मथुरा नगरीमें धनसार सेठ रहता था, वह छासठ कोटी द्रव्यका अधिपति था; परंतु महा कृपण था । एक कौडी भी धर्मके निमित्त देता नहीं था । द्वारपर किसी भिक्षाचरको देखता, तो उस पर रोष करता । यदि कोई आकर याचनाभी करता, तो उस पर क्रुद्ध होता था। याचक को देखतेही उठकर चला जाता । धर्मके निमित्त धन देनेकी बातमें कभी शरीक नहीं होता था । अपने घरमें कभी अच्छी रसोइ भी जिमता नहीं था । उसकी ऐसी कृपणता के कारण उस नगरमें कोइ मनुष्य भोजन करनेके पहले धनसार सेठका नाम भी नहीं लेता था। लोगोंमें ऐसा शक पडगया था कि उसका नाम लेंगे, तो अन्न भी नहीं मिलेगा।
उसने अपने द्रव्यका तीसरा हिस्सा बाईस काटी द्रव्य जमीनमें गाड रक्खा था । उसको एक दीन खोल कर देखा, तो कोयलेके सदृश देखा । बस देखते ही सेठको मूर्छा आ गई । वह जमीन पर गिर गया। थोडी देरके बाद सचेत हुआ, उस समय किसीने आ कर कहा किः- सेठजी ! आपके बाईस कोडीके मालसे भरे हुए नाव समुद्र में डूब गये।' फिर किसीने आ कर कहा कि-' अमुक स्थान पर मालसे भरी हुई अपनी गाडी चोरोंने लूंट ली' । इत्यादि द्रव्यके नाश होनेकी वातें सुन कर सेठ अचेत सा हो गया । रात्रि दिवस घूमता फिरता और सब लोग उसकी हांसी किया करते । एक दिन दस लाख भांड प्रवहणसे भर कर सेठ देशान्तर को चला । वहां भी कर्मयोगसे समु
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