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(७०) भीतर मेरी वाडी है, उसके फल तूने किस प्रकार लिये ?' जब मातंगने डर कर कहा कि-'मैंने विद्याके बलसे लिये।' श्रेणिक राजाने कहा कि-यदि तेरी विद्या मुझे देवे तो. में तेरेको क्षमा करूं। मातंगने उस बातको मान्य किया। उस समय राजाने अपने सिंहासन पर बैठे हुए ही विद्या सीखना प्रारंभ किया । मातंग पुनः पुनः राजाको विद्या मुनाता मगर बाजाको याद नहीं रहती। तब अभयकुमार मंत्रीने कहा कि-हे महाराज : विद्या तो विनय करनेसे आती है, यह सुन कर राजाने अपने सिंहासनसे नीचे उतर कर मातंगका सिंहासन पर बैठाया । और खुद मातंगके आगे दो हाथ जोड कर विद्या सीखनेको बैठा। तब एक दफे चंडालने कही हुइ विद्या राजाको मुखाग्र हो गइ और सफल हुइ। इस प्रकार विनय करके विद्या लेनेसे कार्य सिद्धि होती है।
___ अब बाइसवीं और तेईसवीं पृच्छाके उत्तर दो गाथाके द्वारा कहते हैं:
जो दाणं दाऊणं चित्इ हा कीस मए दिन्नं । होऊण वि धणरिद्धि अचिरावि हु नासए तस्स ॥३८॥ थोवे धणवि हु सत्तिइ देइ दाणं पवइ परेवि । जो पुरिसो तस्स धगं गोयम संमिलइ परे जम्मे ॥३९॥
अर्थात्-जो मनुष्य दान दे करके पीछेसे हृदयमें ऐसी चितवना करता है कि-' हा ! अरे मैंने यह दान अकारण ही कर दिया ।' इस प्रकार दान दे कर
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