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(६२) वसाही परिणाम हुआ और हे कुशल ! तूने ज्ञानपंचमीका तप किया, ज्ञानवन्त गुरुकी भक्ति की: जिससे तू निर्मल बुद्धिवाला हुआ और इसी कारणसे धर्म में तेरी भावप्रज्ञा है।'
इस प्रकार गुरुकी वाणी श्रवण करते हुए कुशलको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वभव देखे, उस समय गुरुके पाससे श्रावकधर्म अंगीकार किया-देशविरति हुआ और वहांसे सुंदरी नामक स्त्री सहित अपने घरको गया, और विद्याधर वैताढय पर्वत पर अपने स्थानकको गया।
कुशलको घर आने के बाद पुत्र प्राप्ति हुई। स्त्री भर्तार दोनोंने पंचमीका तप किया, वह पूर्ण होने पर उसको उझमणा ( उत्सव) किया। श्रीसंघकी भक्ति की। तत्पश्चात् घरका भार पुत्रको सुपुर्द कर कुशलने पिता सहित दीक्षा ली। ग्यारह अंग व चौदह पूर्व पढ कर शुद्ध चारित्रका पालन कर मुक्तिमें गया और लींबाके जीवने दीर्घकाल पर्यंत संसारमें परिभ्रमण किया । कहा है:"जे नाणपंचमि तवं उत्तम जीवा कुणंति भावजुआ। उवभुजिय मणुअमुहं पावंति केवलं नाणं" ॥ १ ॥
अब अठारहवीं व उन्नीसवीं पृच्छाके उत्तर दो गाथाओंके द्वारा कहते हैं ।
सव्वेसि जीवाणं तासं ण करेइ णो करावेइ ।
परपीडवज्जणाओ गोयम धीरो भवे पुरिसो॥ ३४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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