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(६०) धर वहां आया, वहां पर कुशलको देवपूजा करता हुआ देख कर विद्याधरने पूछा कि, ' तुम यह क्या कर रहे हो ?' उसने कहा कि-' देवपूजा, गुरुभक्ति आदिके द्वारा श्रीजिनधर्मका आराधन कर रहा हूं।' यह देख कर विद्याधरने भी जैनधर्म अंगीकार किया और कहने लगा कि, एक तो आकाशगामिनी विद्याका पद याद कर दिया, यह उपकार और दूसरा श्रीजैनधर्म बतलाया यह उपकार-ये दोनों उपकार तुमने मुझ पर किये जिसका प्रत्युपकार मैं किसी हालतमें नहीं कर सकता । यह कहकर पुनः सेठको कहने लगा कि-' मेरे पिताने एक निमित्तियासे पूछा था कि-' मेरी पुत्रीका वर कौन होगा?' निमित्तियाने कहा था कि-'तेरा पुत्र विद्या भूल जायगा, उसको जो याद करा देगा, वह तेरी पुत्रीका पति होगा, इस वास्ते हे सेठ ! तुम्हारे पुत्रको मेरे साथ वैताढय पर भेजो तो विवाह करा दें। यह श्रवण कर सेठने पुत्रको वैताढय पर्वत पर भेजा, वहां शुभलग्नमें विवाह करके फिर विद्याधर, कुशल तथा कुशलकी पत्नी-ये तीनों शाश्वत चैत्यको वंदन करनेको गये, सर्व चैत्योंको वंदन कर चैत्यके मंडपमें आये। वहां चारणश्रमण मुनिको वांदे । मुनिने विद्याधरको कहा कि तेरे बिनोइसे तुम्हे जिनधर्मकी प्राप्ति हुइ है ।
उस समय मुनिको ज्ञानवन्त जान कर कुशलने पूछा कि-'हे महाराज ! किस शुभ कर्मके उदयसे पदानुसारिणी प्रज्ञा-अत्यंत निर्मल बुद्धि मुझको प्राप्त हुई ? और कुमार नामक मेरा सेवक किस कर्मके योगसे मुख
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